Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती


कदंब के फूल

२)
घर आते ही उन्होंने बहू से पूछा--"मोहन दोने में क्या लाया था ?" भामा मन ही मन मुस्कुराई बोली-मिठाई ।
बुढ़िया क्रोध से तिलमिला उठी; बोली-“इतना खाती है; दिन भर बकरी की तरह मुँह चला ही करता है; फिर भी पेट नहीं भरता । बाजार से भी मिठाई मंगा-मंगा के खाती है। अभी मैं न देखती तो क्या तू कभी बतलाती ?
भामा-( मुस्कराते हुए) “तो बतलाती क्यों ? कुछ बतलाने के लिए थोड़े ही मंगवाई थी ?”

-“क्यों क्या मैं घर में कोई चीज ही नहीं हूँ ? तेरे लिए तो मिठाई के लिए पैसे हैं। मैं चार पैसे दान- दक्षिणा के लिए मांगूं तो सदा मुँह से नाहीं निकलती है। तेरा आदमी है; तो मेरा भी तो बेटा है। क्या उसकी कमाई में मेरा कोई हक़ ही नहीं । मुझे तो दो चार सूखी रोटी छोड़ कर कुछ भी न नसीब हो और तू मिठाई मंगा-मंगा के खाए । कर ले जितना तेरा जी चाहे । भगवान तो ऊपर से देख रहा है । वह तो सज़ा देगा ही।"
-(मुस्कराते हुए ) "क्यों कोस रही हो माँजी ! मिठाई एक दिन खा ही ली तो क्या हो गया ? अभी रखी है; तुम भी ले लेना।"

“चल, रहने दे । अब इन मीठे पुचकारों से किसी और को बहकाना; मैं तेरे हाल सब जानती हूँ। तू समझती होगी कि तू जो कुछ करती है, वह कोई नहीं जानता । मैं तो तेरी नस-नस पहिचानती हूँ । दुनियां में बहुत सी औरतें देखी हैं, पर सब तेरे तले तले ।"
(मुस्कराते हुए) “सब मेरे तले-तले न रहेंगी तो करेंगी क्या ? मेरी बराबरी कर लेना मामूली बात नहीं है। मैं ऐसी-वैसी थोड़े हूँ।”
-"चल चल; बहुत बड़प्पन न बघार; नहीं तो सब बड़प्पन निकाल दूँगी।"
भामा अब कुछ चिढ़ गई थी, बोली- बड़प्पन कैसे निकालोगी मां जी, क्या मारोगी ?"
मां जी को और भी क्रोध आ गया और बोलीं-"मारूंगी भी तो मुझे कौन रोक लेगा ? मैं गंगा को मार सकती हूँ, तो क्या तुझे मारने में कोई मेरा हाथ पकड़ लेगा ?”
-मारो, देखूँ कैसे मारती हो ? मुझे वह बहू न समझ लेना जो सास की मार चुपचाप सह लेती हैं ।”

--"तो क्या तू भी मुझे मारेगी ? बाप रे बाप ! इसने तो घड़ी भर में मेरा पानी उतार दिया । मुझे मारने कहती है । आने दे गंगा को मैं कहती हूँ कि भाई तेरी स्त्री की मार सह कर अब मैं घर में न रह सकूँगी; मुझे अलग झोपड़ा डाल दे; मैं वहीं पड़ी रहूँगी । जिस घर में बहू सास को मारने के लिए खड़ी हो जाय वहाँ रहने का धरम नहीं। यह कहते- कहते मां जी जोर-जोर से रोने लगीं ।”

भामा ने देखा कि बात बहुत बढ़ गई; अतः वह बोली-“मैंने तुम्हें मारने को तो नहीं कहा मां जी ! क्यों झूठमूंठ कहती हो। हाँ, मैं मार तो चुपचाप किसी की न सहूँगी । अपने मां-बाप की नहीं सही तो किसी और की क्या सहूँगी ?
“चुपचाप न सहेगी तो मुझे भी मारेगी न ? वही बात तो हुई। यह मखमल में लपेट-लपेट कर कहती है तो क्या मेरी समझ में नहीं आता ।”

मांजी के जोर-जोर से रोने के कारण आसपास की कई स्त्रियां इकट्ठी हो गईं। कई भामा की तरफ़ सहानुभूति रखने वाली थीं कई मांजी की तरफ; पर इस समय मांजी को फूटफूट कर रोते देखकर सब ने भामा को ही भला-बुरा कहा । सब मांजी को घेरकर बैठ गईं । भामा अपराधिनी की तरह घर के भीतर चली गई । भामा ने सुना सांजी आसपास बैठी हुई स्त्रियों से कह रही थीं-आप तो दोना भर-भर मिठाई मंगा-मंगा कर खाती है । और मैंने कभी अपने लिए पैस-धेले की चीज़ के लिए भी कहा तो फ़ौरन ही टका-सा जवाब दे देती है, कहती है पैसा ही नहीं है। इसके नाम से पैसे आ जाते हैं; मेरे नाम से कंगाली छा जाती है। किसी भी चीज़ के लिए तरस-तरस के मांग-मांग के जीभ घिस जाती है; तब जी में आया तो ला दिया नहीं तो कुत्ते की तरह भूँका करो। यह मेरा इस घर में हाल है। आज भी दोना भर मिठाई मंगवाई है। मैंने ज़रा ही पूंछा तो मारने के लिए खड़ी हो गई। कहती है मेरे आदमी की कमाई है, खाती हूँ; किसी के बाप की खाती हूँ क्या ? उसका आदमी है तो मेरा भी तो बेटा है, उसका १२ आने हक़ है तो मेरा ४ आने तो होगा ही ।”

पड़ोस की एक दूसरी बुढ़िया बोली-“राम राम ! यही पढ़ी-लिखी होशयार हैं। पढ़ी-लिखी हैं तो क्या हुआ अक़ल तो कौड़ी के बराबर नहीं है। तुमने भी नौ महीने पेट में रखा बहिन ! तुम्हारा तो सोलह आने हक़ है । बहू को, बेटा मां के लिए लौंडी बनाकर लाता है; वह तुम्हारे पैर दबाने और तुम्हारी सेवा करने के लिए हैं। हमारा नन्दन तो जब तक बहू मेरे पैर नहीं दबा लेती, उसे अपनी कोठरी के अन्दर ही नहीं आने देता।"
-"अपना ही माल खोटा हो तो परखने वाले का क्या-दोष, बहिन ! बेटा ही सपूत होता तो बहू आज मुझे, मारने दौड़ती।"

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